- सूरजपुर अंचल की जनजातियों का पारंपरिक होने के साथ प्रिय नृत्य है करमा
सूरजपुर : गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की थीम पर आधारित युवा महोत्सव 2019-20 में सूरजपुर जिले से 116 दलों के कलाकारों ने हिस्सा लिया। 27 विधाओं में अपनी रंगारंग प्रस्तुति से सभी कलाकारों ने मनमोहक नृत्य पेश किया जिसमें लोगों का विशेष ध्यान आकर्षित करते हुए जय सिद्ध बाबा नाम के महिला और पुरुषों के दल ने शुरू से ही अपने करमा नृत्य पर आधारित प्रस्तुति से जन-जन को मनोरंजीत करने के साथ आकर्षित भी किया। गौरतलब है कि सूरजपुर अंचल के ग्राम पंचायत पेंडरखी के 8 पुरुष और 12 महिलाओं के इस अनूठे दल में लगभग महिलाएं आधी उम्र पूरी कर चुकी है इसके बावजूद इनका जोश और उमंग और कर्मा के रंगों के साथ कंधों पर चढ़कर पिरामिड बनाते हुए नित्य के प्रदर्शन में जन-जन को अचंभित किया है। अब यह दल 12 जनवरी से 14 जनवरी 2020 में रायपुर में आयोजित होने वाली राज्य स्तरीय युवा उत्सव में अपना जौहर प्रदर्शित करेगा।
समूचे छत्तीसगढ़ में करमा नृत्य लोकप्रिय है लेकिन सूरजपुर में अन्य आंचलिक नृत्यों के स्थान पर करमा को विशेष तौर पर पसंद किया जाता है यह उनका पारंपरिक नृत्य भी है। जनजातियाँ अपने देवी-देवताओं का वास पेड़-पौधों पर मानती हैं। प्राचीन काल से ही पेड़-पौधों एवं पशुओं के साथ-साथ पितरों की पूजा की परंपरा इनमें रही है। ये देवी-देवता एवं पेड़-पौधों की पूजा कर, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। पूजित वृक्षों में सरई एवं करम वृक्ष प्रमुख है। जनजाति समूह वर्ष में एक बार वृक्ष के नीचे एकत्रित होकर पूजा-अर्चना कर उत्सव मनाते हैं। करमा नृत्य-गीत में इनका विशेष महत्व है।
इस पर्व की मूल भावना को कालांतर में कर्म एवं भाग्य से जोड़कर इसका एक दूसरा पहलू सामने लाया गया है। करमा नृत्य-गीत कर्म का परिचायक है जो हमें कर्म का संदेश देता है। करम वृक्ष की टहनी को भूमि पर गाड़कर चारों ओर घूम-घूम कर, करमा नृत्य किया जाता है। करमा नृत्य में पंक्तिबद्धता ही करमा नृत्य का परिचायक है। स्त्री-पुरूष पंक्तिबद्ध होकर नाचते हैं और एक दूसरे का हाथ पकड़कर सीधी पंक्ति में अथवा अर्द्ध घेरे में आमने सामने अथवा दायें-बाँयें चलते हुए नाचते हैं। महिलाओं का दल अलग होता है और पुरूषों का दल अलग होता है। नाचने व गाने वालों की सँख्या निश्चित नहीं होती है कितने भी नर्तक इस नृत्य में शामिल हो सकते हैं बशर्ते नाचने के लिये पर्याप्त जगह हो।
करमा नृत्य में माँदर और टिमकी दो प्रमुख वाद्य होते हैं जो एक से अधिक तादाद में बजाये जाते हैं। वादक नाचने वालों के बीच में आकर वाद्य बजाते हैं और नाचते हैं। बजाने वालों का मुख हमेशा नाचने वालों की तरफ होता है। माँदर और टिमकी के अलावा कहीं-कहीं मंजीरा, झाँझ व बाँसुरी भी बजाये जाते हैं। किसी स्थान में नर्तक पैरों में घुँघरू भी पहनते हैं। करमा नर्तकों की वेशभूषा सादी दैनिक पहनावे की होती है। जिस क्षेत्र में जिस प्रकार के कपड़े और गहने-जेवर पहनने का रिवाज होता है, उसी तरह करमा नर्तक भी पहनते हैं। इसके लिये कोई अलग पहनावा नहीं है। जैसे भील इलाके में धोती, कमीज, जैकेट और साफा पुरूष नर्तक पहनते हैं। उराँव क्षेत्र में पुरूष नर्तक धोती, बंडी व साफा और महिला नर्तक परंपरागत तरीके से साड़ी पहनती हैं। श्रृँगार के साधन में मुख्य रूप से परंपरागत कलगी ही लगाते हैं तथा गहना-जेवर रोजमर्रा के ही पहनते हैं। इस तरह करमा नृत्य में कोई अलग से वेषभूषा तथा सजावट के सामग्री की आवश्यकता नहीं होती है। खेतों में काम करने वाला मजदूर तथा स्थानीय सरकारी नौकर व लड़के भी अपने दैनिक वेषभूषा में किसी प्रकार का श्रृंगार किये बिना नृत्य में शामिल हो जाते हैं। नृत्य अधिकतर रात्रि के समय ही चलता है इसीलिये किसी भी प्रकार के रूपसज्जा की आवश्यकता नहीं होती।
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